क्या सच क्या झूट की बात कही.....

                           कविता


   क्या सच क्या झूठ की बात कहीं ,है दिन कहीं और रात कहीं 


बात होती मर्ज़ की, तो मिट भी जाता
है बात फूट और तांत वही !



कुदरत का क़हर यूँ छूटा है, हर एक जहाँ अब टूटा है
है इज्जत कहाँ, तहज़ीब बची 
है जख़्म कहाँ और रोष कहीं !



शियासत मजहब सब कर ही लेना,ये सफेद पोशाक है, डर भी लेना
ये हाल रहा न सच पाओगे, ये काल न सच पाओगे
है लोग यहाँ और कर्म यहीं, है रोग यहाँ और धर्म यहीं !



कल की खबर बस ग़ौर करना,ग़र रहे मजहब और धर्म लड़ना
बस मर्ज़ यहाँ और रोग रहेगा,हर तरफ धुँआ और शोक रहेगा
हो पाक जहाँ में तो खुद से पूछना
हो न सब्र वहाँ फिर जुट के पूछना,है क़ौम अलग और जात नही
ग़ौर करो न फिर बात वहीँ, कहीं धर्म तो मजहब का नाम नही  !!